मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन है, जिन्हे आचरण में उतारने वाला व्यक्ति ही धार्मिक कहलाने योग्य है—विनोद तिवारी—
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः ।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। ( मनुस्मृति )
धैर्य – सुख और दुख का चक्र दिन तथा रात्रि की भांति बदलता रहता है । एक सामान्य व्यक्ति जहाँ सुख में उन्मत हो जाता है और दुःख में अधीर , वहीं धर्म के स्वरूप में स्थित व्यक्ति दोनो स्थितयों में सम रहता है । सूर्य उगते समय लाल रंग का होता है तथा डूबते समय भी लाल रंग का ही होता है । महापुरुष भी इसी प्रकार सुख-दुःख में सर्वदा सम अवस्था में रहते हैं । गीता का भी यही कथन है कि सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय तथा मान-अपमान में अपने को समान अवस्था में रखना चाहिए ।
क्षमा – क्षमा अलौकिक गुण है । वह तो महान व्यक्तियों का आभूषण है । निर्बल व्यक्ति क्षमा की राह पर नहीं चल सकता । अति कृपालु परब्रह्म क्षमा का अनन्त भन्डार हैं ।
एक बार जब महावीर स्वामी ध्यान साधना कर रहे थे तो एक व्यक्ति ने उनके कान में कील ठोक दिया, परन्तु उन्होंने उसे कुछ नहीं कहा । यह उनकी महानता थी ।
दम – दम का अर्थ है दमन अर्थात् मन, चित्त और इन्द्रियों से विषयों का सेवन न होने देना। अर्थात् अब तक जो इन्द्रियाँ मायावी विषयों का सेवन कर रही थीं, चित्त विषयों के चिन्तन में लगा हुआ था तथा मन उनके मनन में तल्लीन था, उसे रोक देना दम (दमन) कहलाता है।
कठोपनिषद् का कथन है कि परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा)का निर्माण किया है, जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग (रूप), हाथी (स्पर्श), हिरण (ध्वनि), भौंरा (सुगन्ध) और मछली (रस) जब मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं, तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है । अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ।
अस्तेय – किसी के धन की इच्छा न करना ही अस्तेय है। योग दर्शन में कहा गया है कि यदि मनुष्य मन, वाणी तथा कर्म से अस्तेय (चोरी न करना) में प्रतिष्ठित हो जाये, तो उसे सभी रत्नों की प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी (योग दर्शन २/३९)। धार्मिक व्यक्ति के लिए तो पराया धन मिट्टी के समान होता है।
शौच (पवित्रता) – बाह्य और आन्तरिक पवित्रता धर्म का प्रमुख अंग है। बाह्य पवित्रता का सम्बन्ध स्थूल शरीर से है तथा आन्तरिक पवित्रता का सम्बन्ध अन्तःकरण की शुद्धता से है। यह सर्वांश सत्य है कि अन्तःकरण को पवित्र किए बिना आध्यात्मिक मंजिल को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि जल से शरीर शुद्ध होता है। सत्य का पालन करने से मन शुद्ध होता है। विद्या और तप से जीव शुद्ध होता है। ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है। वस्तुतः शौच का यही वास्तविक स्वरूप है।
इन्द्रिय निग्रह – विषयों में फँसी हुई इन्द्रियों को विवेकपूर्वक रोकना ही इन्द्रिय निग्रह है। इन इन्द्रियों के द्वारा कितना ही मायावी सुखों का उपभोग क्यों न किया जाये, मन शान्त नहीं होता, बल्कि तृष्णा पल-पल बढ़ती ही जाती है। इसके लिए हठपूर्वक दमन का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए, बल्कि शुद्ध आहार-विहार एवं ध्यान-साधना द्वारा मन-बुद्धि को सात्विक बनाकर ही इन्द्रियों को विषयों से दूर रखा जा सकता है।
बुद्धि – बुद्धि के द्वारा ही ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। बुद्धि विहीन व्यक्ति जब स्वाध्याय और सत्संग का लाभ ही नहीं ले सकता, तो ऐसी स्थिति में आध्यात्मिक उन्नति की कल्पना व्यर्थ है। वस्तुतः शुद्ध बुद्धि को धारण करना भी धार्मिकता का लक्षण है।
शुद्ध बुद्धि के लिए पूर्ण सात्विक आहार, ध्यान तथा शुद्ध ज्ञान की आवश्यकता होती है। समाधि की अवस्था में जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा (सत्य को ग्रहण करने वाली यथार्थ बुद्धि) की प्राप्ति होती है, उसके द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार का मार्ग सरल हो जाता है। बुद्धि के शुद्ध होने पर चित्त तथा मन भी शुद्ध हो जाते हैं, जिससे किसी प्रकार के मनोविकार के प्रकट होने की सम्भावना नहीं रहती है।
विद्या – विद्या दो प्रकार की होती है- परा और अपरा । परा विद्या (ब्रह्मविद्या) से उस अविनाशी ब्रह्म को जाना जाता है, जबकि अपरा विद्या से लौकिक सुखों की प्राप्ति होती है। मानव जीवन को सुखी बनाने के लिए दोनो विद्याओं की अपनी-अपनी उपयोगिता है।
ब्रह्मवाणी (श्री कुलजम स्वरूप) से ही परब्रह्म के यथार्थ स्वरूप व आत्म तत्व को जाना जाता है तथा प्रेम लक्ष्णा भक्ति के द्वारा साक्षात्कार किया जाता है।
सत्य – सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही जीवन है और सत्य ही धर्म का आधार है। तीनो लोक में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और झूठ के बराबर पाप नहीं । कबीर जी ने कहा है- “सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ।।”
झूठ वर्तमान में कितना ही शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो, अन्ततोगतवा सत्य की ही विजय होती है। योग दर्शन का कथन है कि यदि मन, वाणी और कर्म से सत्य में स्थित हो जाया जाए तो वाणी में अमोघता आ जाती है अर्थात् मुख से कुछ भी कहने पर सत्य हो जाता है। सत्य का पालन ही मोक्ष मार्ग का विस्तार करने वाला है।
अक्रोध – धर्मग्रन्थों में कहा गया है कि क्रोध के समान मनुष्य का कोई शत्रु नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य के धैर्य, ज्ञान और सारी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है। क्रोध से शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति का द्वार बन्द हो जाता है। धार्मिक व्यक्ति को तो स्वप्न में भी क्रोध नहीं करना चाहिए ।

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