श्राद्ध से तृप्त होते हैं पितृगण————-
शास्त्रों में विधान है, घर में कुछ भी न होने पर पितरों की तिथि में एकान्त में दोनों हाथ ऊपर उठाकर भक्ति भाव से अश्रुपात करते हुए पितरों से विनती पर तृप्त होने के लिए भगवान से प्रार्थना करें। इससे श्राद्ध का महत्व जीवन में कितना है, अनुमान किया जा सकता है। पितृगण भी श्राद्ध से तृप्त होकर अपने संतति को सभी सुख समृद्धि से तृप्त कर देते हैं।
अश्विन कृष्णापक्ष को अपर पक्ष व पितृपक्ष माना जाता है। धर्मशास्त्र के अनुसार जब कन्या राशि पर सूर्य पहुंचते हैं, वहां से .6 दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण पिण्डदान आदि करना पितरों के लिए तृप्ति कारक माना गया है। पितरों की तृप्ति से घर में पुत्र पौत्रादिवंश वृद्धि एवं गृहस्थाश्रम में सुख शांति बनी रहती है। श्राद्ध कर्म की आवश्यकता के सम्बंध में शास्त्रों में बहुधा प्रमाण मिलते हैं। गीता में भी भगवान् लुप्त पिण्डोदक क्रिया कहकर उसकी आवश्यकता की ओर संकेत किए हैं। क‌र्तव्य के संबंध में शास्त्र ही प्रमाण है। इसलिए पितृ, देव, एवं मनुष्यों के लिए वेद शास्त्र को ही प्रमाण माना गया है, जंगल में रहकर कन्दमूलफल खाकर मन वाणी एवं कर्म से सर्वथा सत्य को ही पालन करने वाले महर्षि गणलोकोपकार के लिए शास्त्र माध्यम से हमें कल्याण मार्ग को बताते हैं। संसार को गुमराह करने के लिए नहीं। अत:आज भी आस्तिक लोग श्रद्धापूर्वक शास्त्र प्रतिपादित धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान करते हैं। जिस प्रकार चिकित्सक द्वारा प्रदत्त औषध के सम्पूर्ण विवरण जाने बिना खाने से भी रोगी लाभान्वित होता है, इसी प्रकार ऋषियों द्वारा प्रवर्तित या वेद प्रतिपादित कल्याण मार्ग के रहस्य को बिना जाने आचरण करने पर भी जीव का कल्याण हो जाता है। तथ्य का ज्ञान केवल ज्ञान -वृद्धि में सहायक होगा। जब तक अनुष्ठान नहीं किया जाएगा, तब तक कल्याण नहीं होगा, इसलिए ज्ञान पक्ष से क्रिया पक्ष अधिक महिमा मण्डित है। शरीर के दो भेद हैं। सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर। पंचभौतिक शरीर मरणोपरान्त नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ उस प्रकार जाता है, जिस प्रकार पुष्प का सुगन्ध वायु के साथ। जिन धर्मग्रन्थों में मरने के बाद गति का वर्णन है, उन्हें स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर मानना पडेगा। सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने वाला सूक्ष्म तत्व ही होता है, जिसको स्थूल मानदण्ड से मापा नहीं जा सकता। वेदों में आत्मा वे जायतेपुत्र: अर्थात पुत्र को आत्म-स्वरूप माना गया है। वैसे सजातीय धर्म का भी एक अपना महत्व है। मनुष्य-मनुष्य में, चुम्बक-चुम्बक में, तार-तार में आदि सजातीय धर्म सुदृढ़ रहता है। अत:इन सजातीय धर्म के आधार पर ही राजनीति में पिता के ऋण को पुत्र को चुकाना पडता है। पुत्र के ऋण को पिता को चुकाना पडता है। जिस प्रकार रेडियो स्टेशन से विद्युत तरंग से ध्वनि प्रसारित करने पर समान धर्म वाले केंद्र से ही उसे सुना जा सकता है, उसी प्रकार इस लोक में स्थित पुत्र रूपी मशीन के भी भावों को श्राद्ध में यथा स्थान स्थापित किए हुए आसन आदि की क्रिया द्वारा शुद्ध और अनन्य बनाकर उसके द्वारा श्राद्ध में दिए गए, अन्नादिकके सूक्ष्म परिणामों को स्थान्तरण कर पितृलोक में पितरों के पास भेजा जाता है। सामान्य व्यवहार में लोगों द्वारा प्रयुक्त अपशब्द या सम्मान जनक शब्द अगर लोगों के मन को उद्वेलित या प्रसन्न कर सकता है, तो पवित्र वेद मंत्रों से अभिमन्त्रित शुद्ध भाव से समर्पित अन्नादिके सूक्ष्मांशपितृ लोगों को तृप्त क्यों नहीं कर सकता? अवश्य करता है। श्राद्ध धन से ही सम्पन्न होगा, ऐसा नही है। जिसके पास अपने खाने के लिए भी दाना नहीं है, वह भी अपने पितरोंको श्रद्धा भाव से तर्पित कर सकता है।

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