परिक्रमा क्यों, कब, किसलिए और कौनसे भगवान की कितनी ?
भगवान की पूजा-आराधना के बाद हम उनकी परिक्रमा करते हैं। सामान्यत: यह बात सभी जानते हैं कि आरती आदि के होने के बाद देवी-देवताओं की परिक्रमा करनी है परंतु यह क्यों की जाती है और इसकी क्या वजह है?भगवान की भक्ति में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है। सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं।
आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है।
किस देवी-देवता की कितनी परिक्रमा:
-महिलाओं द्वारा वटवृक्ष की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है।
– शिवजी की आधी परिक्रमा की जाती है।
– देवी मां की तीन परिक्रमा की जानी चाहिए।
– भगवान विष्णुजी एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए।
– श्रीगणेशजी और हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।
-सूर्य मंदिर की परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं। हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर “ॐ भास्कराय नमः” का जाप करना।
देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है।
इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं।
परिक्रमा के संबंध में नियम:—-
परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है। इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो,उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव रहता है,यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर दूर होने पर घटता जाता है,इस प्रकार प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ति हो जाती है!यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है,कि दैवीय शक्ति कीआभामंडल की गति दक्षिणवर्ती होती है,इसीलिए शास्त्रों में मूर्ति के दायें हाथ की और से परिक्रमाकरने का विधान है! उलटी यानी बाएं हाथ की परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अन्दर के दिव्या परमाणुओ में टकराव उत्पन होता है,परिणाम स्वरूप हमारा तेज नष्ट हो जाता है, इसीलिए बाएं हाथ की परिक्रमा वर्जित मानी जाती है!

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